Saturday, February 8, 2014

Zindagi


क्या बोलूँ क्या याद करूं, फर्क़ कोई तो पड़ा नहीं, 

क्या याद है क्या भूल गया, इसका पता तो चला नहीं। 

कभी तो लगता था कि दिन हैं यार कितने बड़े, 

इतने साल कैसे गुज़र गए , इसका पता तो चला नहीं। 

कभी तो अपने सपने होते थे बस अपने, बड़े बड़े पर छोटे नहीं,

अपने सपने कब हो गए पराये, इसका पता तो चला नहीं। 

कभी तो हम बड़े से बड़े दुःख को हस  कर भुला देते थे,

अब कब वो हमें रुलाने लगे, इसका पता तो चला नहीं।  

कभी तो लगती ये ज़िन्दगी बहुत ही बड़ी हमें,

कब ये छोटी लगने लगी, इसका पता तो चला नहीं। 

विकास खैर 


कविता बहुत समय बाद लिखी है और उस पर भी हिंदी कबिता लिखे हुए तो एक अरसा हो चुका था, तो पैश-ए -खिदमत है, एक छोटा सा प्रयास बड़े समय बाद. और हाँ ये इस ब्लॉग की पहली हिंदी पोस्ट है । पूरा श्रेय जाता है शशिप्रकाश सैनीजी को जिनके फोटोज  को देख कर हिंदी कविता लिखने का मन किया तो फिर शशिप्रकाश सैनीजी आपके क्या ख्याल हैं ।




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